धर्म एवं दर्शन >> महाभारत की कथाएँ महाभारत की कथाएँमहेश दत्त शर्मा
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इसमें महाभारत की कथाओं का वर्णन किया गया है....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
समस्त भारतीय साहित्य में महर्षि वेदव्यास रचित महाभारत भारतीय संस्कृति,
सभ्यता और दर्शन का आधार ग्रंथ है। यह ग्रंथ अपने समय की भारतीय संस्कृति
तथा तत्कालीन जनजीवन के नैतिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा धार्मिक पहलुओं पर
प्रकाश डालता है। स्पष्टतः महाभारत ज्ञान का असीम भंडार है।
इस महाकाव्य में 100217 श्लोक हैं जिन्हें 18 पर्वों में बाँटा गया है। यह महाकाव्य एक जगमगाते हुए प्रकाश-स्त्रोत के समान है। यदि इसे निष्ठापूर्वक पढ़कर इसकी शिक्षाओं का मनन किया जाए तो यह अज्ञान के अंधकार का विनाश कर मस्तिष्क को ज्ञान से युक्त बनाता है। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर प्रस्तुत पुस्तक में महाभारत ग्रंथ से संबंधित विभिन्न रोचक और ज्ञानवर्द्धक कथाओं का संकलन किया गया है जो पाठकों का निश्चित ही मार्गदर्शन करेंगी।
इस महाकाव्य में 100217 श्लोक हैं जिन्हें 18 पर्वों में बाँटा गया है। यह महाकाव्य एक जगमगाते हुए प्रकाश-स्त्रोत के समान है। यदि इसे निष्ठापूर्वक पढ़कर इसकी शिक्षाओं का मनन किया जाए तो यह अज्ञान के अंधकार का विनाश कर मस्तिष्क को ज्ञान से युक्त बनाता है। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर प्रस्तुत पुस्तक में महाभारत ग्रंथ से संबंधित विभिन्न रोचक और ज्ञानवर्द्धक कथाओं का संकलन किया गया है जो पाठकों का निश्चित ही मार्गदर्शन करेंगी।
अपनी बात
महर्षि वेदव्यास रचित महाभारत की गणना विश्व के महान महाकाव्यों में की
जाती है। यह ग्रंथ अपने समय की भारतीय संस्कृति तथा तत्कालीन जनजीवन के
नैतिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा धार्मिक पहलुओं पर प्रकाश डालता है।
इस ग्रंथ में वैदिक दर्शन, विभिन्न पुराणों के सारांश, विभिन्न आकाशीय पिंडों के प्रभाव, समकालीन न्याय-व्यवस्था, शिक्षा-प्रणाली, औषध-विज्ञान, दान-दक्षिणा की रीतियाँ, ईश्वर के प्रति श्रद्धा, विभिन्न तीर्थ-स्थानों, वनों, पर्वतों, नदियों तथा सागरों का समावेश है।
स्पष्टतः महाभारत—ज्ञान का असीम भंडार है। यह ऐसा धार्मिक ग्रंथ है जो राजनीति के सिद्धांतों का भी प्रतिपादन करता है तथा साथ ही जीवन-दर्शन के विभिन्न अंगों की व्यख्या भी। यही नहीं, यह प्राचीन आर्य संस्कृति का इतिहास भी प्रस्तुत करता है। इसी कारण इसे पाँचवाँ वेद’ भी माना गया है।
इस महाकाव्य में 100,217 श्लोक हैं जिन्हें 18 पर्वों में बांटा गया है। इस ग्रंथ का आरंभिक नाम था-जय। परंतु कालांतर में इसे भरत पुराण का नाम दे दिया गया और बाद में यह महाकाव्य महाभारत के नाम से विख्यात हो गया।
श्रीमद्भगवद्गीता इस महाकाव्य की ही एक भाग है। कौन नहीं जानता कि गीता समूचे आध्यात्मिक दर्शन का सारांश है ? इस महाकाव्य के महान् रचयिता वेद व्यास ने गीता को महाकाव्य के दो मुख्य पात्रों के आपसी वार्तालाप के रूप में प्रस्तुत किया है। द्वारिका-नरेश श्रीकृष्ण को उपदेशक के रूप में चित्रित किया गया है जबकि अर्जुन नामक महान् धनुर्धर पांडव को उपदेशित योद्धा के रूप में दिखाया गया है। स्पष्ट है कि महाभारत के अध्ययन से पाठक को सभी बड़े-छोटे पापों से मुक्ति मिल जाती है।
यह महाकाव्य एक जगमगाते हुए प्रकाश-स्रोत के समान है। यदि इसे निष्ठापूर्वक पढ़कर इसकी शिक्षाओं का मनन किया जाए तो यह अज्ञान के अंधकार का विनाश करने के उपरांत मस्तिष्क को सर्वग्राही ज्ञान से युक्त करके उसे प्रकाशमान बना देता है। हमने इस पुस्तक में महाभारत ग्रंथ से संबधित विभिन्न रोचक और ज्ञानवर्धक कथाओं का संग्रह किया है जो पाठकों का निश्चित ही जीवन-मार्गदर्शन करेंगी।
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इस ग्रंथ में वैदिक दर्शन, विभिन्न पुराणों के सारांश, विभिन्न आकाशीय पिंडों के प्रभाव, समकालीन न्याय-व्यवस्था, शिक्षा-प्रणाली, औषध-विज्ञान, दान-दक्षिणा की रीतियाँ, ईश्वर के प्रति श्रद्धा, विभिन्न तीर्थ-स्थानों, वनों, पर्वतों, नदियों तथा सागरों का समावेश है।
स्पष्टतः महाभारत—ज्ञान का असीम भंडार है। यह ऐसा धार्मिक ग्रंथ है जो राजनीति के सिद्धांतों का भी प्रतिपादन करता है तथा साथ ही जीवन-दर्शन के विभिन्न अंगों की व्यख्या भी। यही नहीं, यह प्राचीन आर्य संस्कृति का इतिहास भी प्रस्तुत करता है। इसी कारण इसे पाँचवाँ वेद’ भी माना गया है।
इस महाकाव्य में 100,217 श्लोक हैं जिन्हें 18 पर्वों में बांटा गया है। इस ग्रंथ का आरंभिक नाम था-जय। परंतु कालांतर में इसे भरत पुराण का नाम दे दिया गया और बाद में यह महाकाव्य महाभारत के नाम से विख्यात हो गया।
श्रीमद्भगवद्गीता इस महाकाव्य की ही एक भाग है। कौन नहीं जानता कि गीता समूचे आध्यात्मिक दर्शन का सारांश है ? इस महाकाव्य के महान् रचयिता वेद व्यास ने गीता को महाकाव्य के दो मुख्य पात्रों के आपसी वार्तालाप के रूप में प्रस्तुत किया है। द्वारिका-नरेश श्रीकृष्ण को उपदेशक के रूप में चित्रित किया गया है जबकि अर्जुन नामक महान् धनुर्धर पांडव को उपदेशित योद्धा के रूप में दिखाया गया है। स्पष्ट है कि महाभारत के अध्ययन से पाठक को सभी बड़े-छोटे पापों से मुक्ति मिल जाती है।
यह महाकाव्य एक जगमगाते हुए प्रकाश-स्रोत के समान है। यदि इसे निष्ठापूर्वक पढ़कर इसकी शिक्षाओं का मनन किया जाए तो यह अज्ञान के अंधकार का विनाश करने के उपरांत मस्तिष्क को सर्वग्राही ज्ञान से युक्त करके उसे प्रकाशमान बना देता है। हमने इस पुस्तक में महाभारत ग्रंथ से संबधित विभिन्न रोचक और ज्ञानवर्धक कथाओं का संग्रह किया है जो पाठकों का निश्चित ही जीवन-मार्गदर्शन करेंगी।
-लेखक
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कृष्ण द्वैपायन वेद व्यास
एक समय की बात है, महान् तेजस्वी मुनिवर पराशर तीर्थ यात्रा पर थे। घूमते
हुए वे यमुना के पावन तट पर आए और एक मछुए से नदी के उस पार पहुँचाने के
लिए कहा। मछुआ उस समय भोजन कर रहा था। उसने अपनी पुत्री मत्स्यगंधा को
मुनि को नदी पार पहुँचाने की आज्ञा दी।
मत्स्यगंधा मुनि को नौका से नदी पार कराने लगी। जब मुनि पराशर की दृष्टि मत्स्यगंधा के सुंदर मुख पर पड़ी तो दैववश उनके मन में काम जाग उठा। मुनि ने मत्स्यगंधा का हाथ पकड़ लिया। मत्स्गंधा ने विचार किया-‘यदि मैंने मुनि की इच्छा के विरुद्ध कुछ कार्य किया तो ये मुझे शाप दे सकते हैं।’ अतः उसने चतुराई से कहा—‘‘हे मुनि ! मेरे शरीर से तो मछली की दुर्गन्ध निकला करती है। मुझे देखकर आपके मन में यह काम भाव कैसे उत्पन्न हो गया ?’’
मुनि चुप रहे तब मत्स्यगंधा ने कहा—‘‘मुनिवर ! मैं दुर्गन्धा हूँ। दोनों समान रूप वाले हों, तभी संयोग होने पर सुख मिलता है।’’
पराशर जी ने अपने तपोबल से मत्स्यगंधा को कश्तूरी की सुगंधवाली बना दिया और उसका नाम सत्यवती रख दिया। जब सत्यवती ने यह कहकर बचना चाहा कि ‘अभी दिन है’ तो मुनि ने अपने पुण्य के प्रभाव से वहाँ कोहरा उत्पन्न कर दिया, जिससे तट पर अंधेरा छा गया।
तब सत्यवती ने कोमल वाणी में प्रार्थना की—‘‘विप्रवर ! मैं कुँवारी कन्या हूँ। यदि आपके सम्पर्क से माँ बन गई तो मेरा जीवन नष्ट हो जाएगा।’’
पराशर जी बोले—‘‘प्रिय ! मेरा प्रिय कार्य करने पर भी तुम कन्या ही बनी रहोगी। तुम्हें और जो भी इच्छा हो, वह वर माँग लो।’’ सत्यवती बोली—‘‘आप ऐसी कृपा कीजिए, जिससे जगत में मेरे माता-पिता इस रहस्य को न जान सकें। मेरा कौमार्य भंग न होने पाए। मेरी यह सुगंध सदा बनी रहे। मैं सदा नवयुवती बनी रहूँ और आप ही के समान मेरे एक तेजस्वी पुत्र उत्पन्न हो।’’
पराशर जी ने उसकी सभी इच्छाएँ पूरी कर दीं। फिर वे अपनी इच्छा पूरी करके चले गए। समयानुसार सत्यवती ने यमुना में विकसित हुए एक छोटे से द्वीप पर वेद व्यास को जन्म दिया। श्याम वर्ण होने के कारण उनका नाम कृष्ण रखा गया तथा द्वीप पर जन्म लेने के कारण उन्हें कृष्ण द्वैपायन कहा जाने लगा।
जन्म लेते ही व्यास जी बड़े हो गए और सत्यवती से बोले—‘‘माता ! मैं अपने जन्म के उद्देश्य को सार्थक करने के लिए तपस्या करने जाता हूँ। आप कठिन परिस्थिति में जब भी मेरा स्मरण करेंगी, मैं उसी क्षण आपकी सेवा में उपस्थित हो जाऊँगा।’’
कृष्ण द्वैपायन तपस्या में लग गये और द्वापर युग के अंतिम चरण में वेदों का सम्पादन करने में जुट गए। वेदों का विस्तार करने से उनका एक प्रसिद्ध नाम ‘वेद व्यास’ पड़ गया।
वेदों का संकलन और संपादन करने के बाद महर्षि व्यास के मन में एक ऐसे महाकाव्य की रचना करने का विचार उत्पन्न हुआ, जिससे संसार लाभान्वित हो सके। वे ब्रह्माजी के पास गए और उनसे मार्गदर्शन करने की प्रार्थना की।
व्यासजी का ध्येय जानकर ब्रह्माजी प्रसन्न होकर बोले—‘‘वत्स ! तुम्हारा विचार अति उत्तम है। परंतु पृथ्वी पर ऐसा कोई भी मनुष्य नहीं है जो तुम्हारे ग्रंथ को लिखित रूप प्रदान कर सके। अतः आप गणेशजी की उपासना करके उनसे प्रार्थना करें कि वे इस कार्य में आपकी सहायता करें।’’
व्यासजी ने विघ्नहर्ता भगवान् गणेश की स्तुति की तो वे साक्षात् प्रकट हो गए। तब व्यास जी ने उनसे अपने ग्रंथ के लिपिक बनने की प्रार्थना की।
गणेशजी बोले—‘‘मुनिवर ! मुझे आपका प्रस्ताव स्वीकार है लेकिन याद रहे; मेरी लेखनी एक पल के लिए भी रुकनी नहीं चाहिए।’’
व्यासजी बोले—‘‘ऐसा ही होगा भगवन् ! परंतु आप भी कोई श्लोक तब तक नहीं लिखेंगे जब तक कि आप उसका अर्थ न समझ लें।’
गणेश जी ने शर्त स्वीकार कर ली।
इस प्रकार, महर्षि व्यास ने एक महान महाकाव्य की रचना की जो संसार में महाभारत के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
मत्स्यगंधा मुनि को नौका से नदी पार कराने लगी। जब मुनि पराशर की दृष्टि मत्स्यगंधा के सुंदर मुख पर पड़ी तो दैववश उनके मन में काम जाग उठा। मुनि ने मत्स्यगंधा का हाथ पकड़ लिया। मत्स्गंधा ने विचार किया-‘यदि मैंने मुनि की इच्छा के विरुद्ध कुछ कार्य किया तो ये मुझे शाप दे सकते हैं।’ अतः उसने चतुराई से कहा—‘‘हे मुनि ! मेरे शरीर से तो मछली की दुर्गन्ध निकला करती है। मुझे देखकर आपके मन में यह काम भाव कैसे उत्पन्न हो गया ?’’
मुनि चुप रहे तब मत्स्यगंधा ने कहा—‘‘मुनिवर ! मैं दुर्गन्धा हूँ। दोनों समान रूप वाले हों, तभी संयोग होने पर सुख मिलता है।’’
पराशर जी ने अपने तपोबल से मत्स्यगंधा को कश्तूरी की सुगंधवाली बना दिया और उसका नाम सत्यवती रख दिया। जब सत्यवती ने यह कहकर बचना चाहा कि ‘अभी दिन है’ तो मुनि ने अपने पुण्य के प्रभाव से वहाँ कोहरा उत्पन्न कर दिया, जिससे तट पर अंधेरा छा गया।
तब सत्यवती ने कोमल वाणी में प्रार्थना की—‘‘विप्रवर ! मैं कुँवारी कन्या हूँ। यदि आपके सम्पर्क से माँ बन गई तो मेरा जीवन नष्ट हो जाएगा।’’
पराशर जी बोले—‘‘प्रिय ! मेरा प्रिय कार्य करने पर भी तुम कन्या ही बनी रहोगी। तुम्हें और जो भी इच्छा हो, वह वर माँग लो।’’ सत्यवती बोली—‘‘आप ऐसी कृपा कीजिए, जिससे जगत में मेरे माता-पिता इस रहस्य को न जान सकें। मेरा कौमार्य भंग न होने पाए। मेरी यह सुगंध सदा बनी रहे। मैं सदा नवयुवती बनी रहूँ और आप ही के समान मेरे एक तेजस्वी पुत्र उत्पन्न हो।’’
पराशर जी ने उसकी सभी इच्छाएँ पूरी कर दीं। फिर वे अपनी इच्छा पूरी करके चले गए। समयानुसार सत्यवती ने यमुना में विकसित हुए एक छोटे से द्वीप पर वेद व्यास को जन्म दिया। श्याम वर्ण होने के कारण उनका नाम कृष्ण रखा गया तथा द्वीप पर जन्म लेने के कारण उन्हें कृष्ण द्वैपायन कहा जाने लगा।
जन्म लेते ही व्यास जी बड़े हो गए और सत्यवती से बोले—‘‘माता ! मैं अपने जन्म के उद्देश्य को सार्थक करने के लिए तपस्या करने जाता हूँ। आप कठिन परिस्थिति में जब भी मेरा स्मरण करेंगी, मैं उसी क्षण आपकी सेवा में उपस्थित हो जाऊँगा।’’
कृष्ण द्वैपायन तपस्या में लग गये और द्वापर युग के अंतिम चरण में वेदों का सम्पादन करने में जुट गए। वेदों का विस्तार करने से उनका एक प्रसिद्ध नाम ‘वेद व्यास’ पड़ गया।
वेदों का संकलन और संपादन करने के बाद महर्षि व्यास के मन में एक ऐसे महाकाव्य की रचना करने का विचार उत्पन्न हुआ, जिससे संसार लाभान्वित हो सके। वे ब्रह्माजी के पास गए और उनसे मार्गदर्शन करने की प्रार्थना की।
व्यासजी का ध्येय जानकर ब्रह्माजी प्रसन्न होकर बोले—‘‘वत्स ! तुम्हारा विचार अति उत्तम है। परंतु पृथ्वी पर ऐसा कोई भी मनुष्य नहीं है जो तुम्हारे ग्रंथ को लिखित रूप प्रदान कर सके। अतः आप गणेशजी की उपासना करके उनसे प्रार्थना करें कि वे इस कार्य में आपकी सहायता करें।’’
व्यासजी ने विघ्नहर्ता भगवान् गणेश की स्तुति की तो वे साक्षात् प्रकट हो गए। तब व्यास जी ने उनसे अपने ग्रंथ के लिपिक बनने की प्रार्थना की।
गणेशजी बोले—‘‘मुनिवर ! मुझे आपका प्रस्ताव स्वीकार है लेकिन याद रहे; मेरी लेखनी एक पल के लिए भी रुकनी नहीं चाहिए।’’
व्यासजी बोले—‘‘ऐसा ही होगा भगवन् ! परंतु आप भी कोई श्लोक तब तक नहीं लिखेंगे जब तक कि आप उसका अर्थ न समझ लें।’
गणेश जी ने शर्त स्वीकार कर ली।
इस प्रकार, महर्षि व्यास ने एक महान महाकाव्य की रचना की जो संसार में महाभारत के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
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